Sandhi Viched (संधि विच्छेद)
भाषा विज्ञान में हिंदी वर्णमाला के विभिन्न वर्णों के समास्यता एवं विशेषताओं को समझने के लिए संधि विच्छेद एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय है। संधि विच्छेद का मूल उद्देश्य भाषा के शब्दों की उत्पत्ति और उनके वाक्यांतरण में आने वाले विभिन्न प्रकार के संधि समस्याओं को समझना है। हिंदी वर्णमाला में दो या दो से अधिक वर्णों के एक साथ मिलने से संधि बनती है और वाक्य रचना में संधि का बहुत महत्व होता है।
संधियों के प्रकार: संधियां तीन विभाजनों में होती हैं – स्वर संधि, व्यंजन संधि, और विसर्ग संधि।
- स्वर संधि: स्वर संधि में दो स्वरों के मेल से नए स्वर बनते हैं, जैसे दो वर्णों ‘अ’ और ‘इ’ के मिलने से ‘ए’ बन जाता है। यह संधि वाक्य में अधिक सुविधा प्रदान करती है और भाषा को समृद्ध बनाती है।
- व्यंजन संधि: व्यंजन संधि में दो व्यंजनों के मिलने से नए व्यंजन या स्वर का उत्पादन होता है। उदाहरण के लिए, दो व्यंजनों ‘स’ और ‘त’ के मिलने से ‘स्त’ बन जाता है।
- विसर्ग संधि: विसर्ग संधि में ‘ह’ या ‘ं’ विसर्ग के समानार्थी वर्ण के साथ विसर्जन होता है, जो वाक्य के अर्थ में परिवर्तन लाता है। उदाहरण के लिए, ‘रामः गच्छति’ में ‘ह’ विसर्ग के स्थान पर ‘गच्छति’ हो जाता है।
Sandhi Viched in Hindi
संधियों का अध्ययन हिंदी भाषा के सही उपयोग और व्याकरणिक नियमों को समझने में मदद करता है और सही शब्दों का चयन करने में सहायक होता है। इसलिए, हमें अपनी भाषा ज्ञान को समृद्ध करने के लिए संधियों के महत्वपूर्ण अध्ययन को जारी रखना चाहिए।
स्वर संधि
स्वर संधि, हिंदी व्याकरण में वर्णों के मेल या एक से दूसरे के प्रत्ययों के अधिनियम से स्वर वर्ण के साथ व्यंजन वर्ण या व्यंजन वर्ण के साथ स्वर वर्ण का मिलना है। स्वर संधि के कारण, एक से दूसरे शब्द या पद के संरचना और उच्चारण में बदलाव हो सकता है। स्वर संधि भाषा के विभिन्न विधियों में से एक है, जो भाषा को संवाद में सुविधाजनक बनाने में मदद करती है।
स्वर संधि के पांच प्रकार होते हैं:
- दीर्घ संधि
- गुण संधि
- वृद्धि संधि
- यण संधि
- अयादि संधि
दीर्घ संधि विच्छेद
अभीष्ट (अभि+इष्ट), अन्नाभाव (अन्न+अभाव), बुद्धीश (बुद्ध+ईश), भारतीश्वर (भारती+ईश्वर), भानूदय (भानु+उदय), भोजनालय (भोजन+आलय), भूपरि (भू+उपरि), भूत्तम (भू+उत्तम), देवाधिवति (देव+अधिपति), धर्मार्थ (धर्म+अर्थ), गिरीश (गिरि+ईश), गिरीन्द्र (गिर+इन्द्र), गुणालय (गुण+आलय), हरीश (हरि+ईश), हिमालय (हिम+आलय), होतृकार (होतृ+ऋकार), जानकीश (जानकी+ईश), कवींद्र (कवि+इन्द्र), कपीश (कपि+ईश), कवीश (कवि+ईश), कटूक्ति (कटु+उक्ति), कामारि (काम+अरि), लक्ष्मीच्छा (लक्ष्मी+इच्छा), लघूक्ति (लघु+उक्ति), लघूर्मि (लघु+ऊर्मि), महींद्र (मही+इन्द्र), महीश (मही+ईश), महाशय (महा+शय), मंजूषा (मंजु+ऊषा), मातृणाण (मातृ+ऋणाम्), मुनीश्वर (मुनि+ईश्वर), मृत्यूपरांत (मृत्यु+उपरांत), नदीश (नदी+ईश), पुस्तकालय (पुस्तक+आलय), पृथ्वीश (पृथ्वी+ईश), पितृण (पितृ+ऋण), रघूत्तम (रघु+उत्तम), रतीश (रति+ईश), रजनीश (रजनी+ईश), स्वर्णावसर (स्वर्ण+अवसर), सूक्ति (सु+उक्ति), स्वयंभूदय (स्वयंभू+उदय), शरणार्थी (शरण+अर्थी), शिवालय (शिव+आलय), सिन्धूर्मि (सिन्धु+ऊर्मि), वधूत्सव (वधु+उत्सव), वधूर्मि (वधू+उर्मि), विद्यार्थी (विद्या+अर्थी), विद्यालय (विद्या+आलय), वधूल्लास (वधु+उल्लास), युवावस्था (युवा+अवस्था)।
गुण संधि विच्छेद
चंद्रोदय (चन्द्र+उदय), दीर्घोपल (दीर्घ+ऊपल), देवेंद्र (देव+इन्द्र), देवेश (देव+ईश), देवर्षि (देव+ऋषि), गणेश (गण+ईश), गंगोर्मि (गंगा+ऊर्मि), जलोदय (जल+उदय), जलोर्मि (जल+ऊर्मि), खगेश (खग+ईश), लोकोपयोग (लोक+उपयोग), महोत्सव (महा+उत्सव), महोजस्वी (महा+ओजस्वी), महोर्जस्वी (महा+ऊर्जस्वी), महोर्मि (महा+उर्मि), महेश्वर (महा+ईश्वर), महेश (महा+ईश), महोपदेश (महा+उपदेश), महेंद्र (महा+इन्द्र), मृगेंद्र (मृग+इन्द्र), महर्षि (महा+ऋषि), नरेश (नर+ईश), नरेंद्र (नर+इन्द्र), परमोत्सव (परम+उत्सव), परोपकार (पर+उपकार), प्रेत (प्र+इत) परमेश्वर (परम+ईश्वर), रमेश (रमा+ईश), राजऋषि (राज+ऋषि), सप्तर्षि (सप्त+ऋषि), समुद्रोर्मि (समुद्र+ऊर्मि), सुरेंद्र (सुर+इन्द्र), सुरेश (सुर+ईश), सूर्योदय (सूर्य+उदय), उपेन्द्र (उप+इन्द्र)।
वृद्धि संधि विच्छेद
एकदैव (एकदा+एव), एकैव (एक+एव), एकैक (एक+एक), दिनैक (दिन+एक), देवैश्वर्य (देव+ऐश्वर्य), धर्मैक्य (धर्म+ऐक्य), जलौस (जल+ओस), जलौक (जल+ओक), जलौषध (जल+औषध), महौज (महा+ओज), महौदार्य (महा+औदार्य), महौषध (महा+औषध), महैश्वर्य (महा+ऐश्वर्य), मतैक्य (मत+ऐक्य), नवैश्वर्य (नव+ऐश्वर्य), परमौज (परम+ओज), परमौषध (परम+औषध), परमौदार्य (परम+औदार्य), परमैश्वर्य (परम+एश्वर्य), सदैव (सदा+एव), सर्वदैव (सर्वदा+एव), तत्रैव (तत्र+एव), तथैव (तथा+एव), उष्णौदन (उष्ण+ओदन), वनौषधि (नव+औषधि), विश्वैक्य (विश्व+ऐक्य)।
यण संधि विच्छेद
अध्ययन (अधि+अयन), अन्वादेश (अनु+आदेश), अत्यंत (अति+अंत), अन्वय (अनु+अय), अन्वर्थ (अनु+अर्थ), अत्यर्थ (अति+अर्थ), अत्युक्ति (अति+उक्ति), अत्युत्तम (अति+उत्तम), अन्वय (अनु+अय), अन्विष्ट (अनु+इष्ट), अत्यधिक (अति+अधिक), अत्याचार (अति+आचार), अत्यूष्म (अति+ऊष्म), अन्वीक्षण (अनु+ईक्षण), अत्यावश्यक (अति+आवश्यक), भान्वागमन (भानु+आगमन), ऋत्वन्त (ऋतु+अन्त), देव्यागम (देवी+आगमन), देव्युक्ति (देवी+उक्ति), देव्यालय (देवी+आलय), देव्यैश्वर्य (देवी+ऐश्वर्य), देव्योज (देवी+ओज), देव्यौदार्य (देवी+औदार्य),देव्यंग(देवी+अंग), धात्विक (धातु+इक), गुर्वौदन (गुरु+ओदन), गुर्वौदार्य (गुरु+औदार्य), इत्यादि (इति+आदि), मन्वन्तर (मनु+अन्तर), मध्वरि (मधु+अरि), मध्वालय (मधु+आलय), मात्रार्थ (मातृ+अर्थ), न्यून (नि+ऊन), नद्यर्पण (नदी+अर्पण), नद्यूर्मि (नदी+ऊर्मि), प्रत्युत्तर (प्रति+उत्तर), प्रत्येक (प्रति+एक), प्रत्युपकार (प्रति+उपकार), प्रत्यूष (प्रति+ऊष), पित्राज्ञा (पितृ+आज्ञा), रीत्यानुसार (रीति+अनुसार), स्वागत (सु+आगत), सख्यागम (सखी+आगम), सख्युचित (सखी+उचित), सरस्वत्याराधना (सरस्वती+आराधना), उपर्युक्त (उपरि+उक्त), वध्वर्थ (वधू+अर्थ), वध्वागमन (वधू+आगमन), वाण्यूर्मि (वाणि+ऊर्मि), वध्विष्ट (वधू+इष्ट), वध्वीर्ष्या (वधू+ईर्ष्या), यद्यपि (यदि+अपि)।
अयादि संधि विच्छेद
अन्वेषण (अनु+एषण), भवन (भो+अन), भ्रात्रोक (भ्रातृ+ओक), भ्रात्रेषणा (भ्रातृ+एषणा), चयन (चे+अन), गायक (गै+अक), गायन (गै+अन), गवीश (गो+ईश), गवन (गो+अन), गुर्वोदार्य (गुरु+औदार्य), मध्वोदन (मधु+ओदन), मध्वौषध (मधु+औषध), मात्रादेश (मातृ+आदेश), मात्रानन्द (मातृ+आनन्द), मात्रंग (मातृ+अंग), नयन (ने+अन), नायक (नै+अक), पवित्र (पो+इत्र), पवन (पो+अन), पावक (पौ+अक), पावन (पौ+अन), पित्रादेश (पितृ+आदेश), पित्रनुदेश (पित्र+अनुदेश), पित्रनुमति (पितृ+अनुमति), पावन (पौ+अन), पावक (पौ+अक), रवीश (रवि+ईश), सायक (सै+अक), शयन (शे+अन), वध्वंग (वधू+अंग), वध्वादेश (वधू+आदेश), वध्वेषण (वधू+एषण), वध्विष्ट (वधू+इष्ट), वध्वर्थ (वधू+अर्थ), श्रवण (श्रो+अन), श्रावन (श्रौ+अन)।
व्यंजन संधि
व्यंजन संधि, व्यंजन वर्णों के साथ स्वर वर्ण या स्वर वर्णों के साथ व्यंजन वर्णों के मिलने से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे व्यंजन संधि कहा जाता है।
उदाहरण – “अभी + सेक = अभिषेक”
वायु + आकार = वायुआकार
इस उदाहरण में, “वायु” शब्द में ‘य’ व्यंजन वर्ण के साथ ‘आ’ स्वर वर्ण का मिलने से “वायुआकार” शब्द बना है।
विसर्ग संधि
विसर्ग संधि, विसर्ग के साथ और स्वर या व्यंजन वर्णों के मिलने से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे विसर्ग संधि कहा जाता है।
उदाहरण:
- मन+अनुकूल = मनोनुकूल
- निः+अक्षर = निरक्षर
विसर्ग संधि के अन्तर्गत प्रयोग किए जाने वाले नियम निम्नलिखित हैं:
- विसर्ग (:) + च / छ = निः + चल = निश्चल (: = श्)
- विसर्ग + ट / ठ = धनुः + टंकार = धनुष्टकार
- विसर्ग + त / थ = निः + तेजः = निस्तेज
- विसर्ग + वर्गों 3रा, 4था, 5वाँ वर्ण / अन्तःस्थ / ह = सरः + ज = सरोज / मनः + रथ = मनोरथ
- विसर्ग + क / ख / प = प्रातः + काल = प्रातःकाल (दुः + ख = दुःख)
- विसर्ग + श / स = दुः + शासन = दुःशासन / दुश्शासन
- विसर्ग ज्यों का त्यों या विसर्ग का रूपांतरण अले ‘स’ में (यानी दोनों स्थितियाँ होती हैं) – (इ / उ) विसर्ग + क / प = निः + कपट = निष्कपट / (चतुः + पथ = चतुष्पथ) (अ / आ) विसर्ग + क / प = नमः + कार = नमस्कार / (पुरः + कार = पुरस्कार)
Sandhi Viched (संधि विच्छेद) | Sandhi Viched in Hindi – FAQs
प्रश्न 1: संधि विच्छेद क्या होता है?
उत्तर: संधि विच्छेद एक हिंदी व्याकरणिक नियम है जिसमें वर्णों या शब्दों के मेल के आधार पर उनमें विकार या परिवर्तन का होना है। यह विकार वाक्य रचना और अर्थ में परिवर्तन को उत्पन्न करता है और हिंदी भाषा में शब्दों का सही उपयोग करने के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 2: संधि विच्छेद का क्या उद्देश्य होता है?
उत्तर: संधि विच्छेद का मुख्य उद्देश्य हिंदी भाषा में शब्दों की उत्पत्ति और उनके वाक्यांतरण में आने वाले विभिन्न प्रकार के संधि समस्याओं को समझना है। इससे शब्दावली में वृद्धि होती है और भाषा के संरचनात्मक दृष्टिकोन से छात्रों को अधिक अवधारणा प्राप्त होती है। संधि विच्छेद का अध्ययन हिंदी भाषा के सही उपयोग के लिए आवश्यक है और इससे भाषा के शैलीशास्त्रीय रूप से उन्नति होती है।
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